आणि परत पैंजण रुणझुणले

 आणि परत पैंजण रुणझुणले

लेखिका- सविता किरनाळे 


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‘हो  आले  गं‘  गुढघ्यावर  एक  हात  ठेवून  उठत  निर्मलाबाई  जोरात  म्हणाल्या.  

‘अहो  कुठे  चाललात?’  आरामखुर्चीत  वाचत  बसलेले  वसंतराव  चश्म्यावरुन  पाहत  बोलले. 

 ‘हे  काय  आपली  सई....’  बोलता  बोलता  निर्मलाबाई  भानावर  येवून  थबकल्या. 


 ‘निर्मला  आता  दिवास्वप्नातून  बाहेर  या  बरं,  इथे  सई  वगैरे  कोणी  नाही.  आता  फक्त  आपण  दोघेच  आहोत  एकमेकांसाठी.’  उसासा  टाकत  वसंतराव  म्हणाले.


निर्मलाबाई  आणि  वसंतराव  एक  जेष्ठ  नागरिक  जोडपं.  वसंतरावांना  सेवानिवृत्त  होवून  सहा  वर्ष  झाली  होती.  निर्मलाबाई  आपण,  आपला  नवरा  आणि  मुलगा  इतकच  विश्व  असणाऱ्या  गृहिणी.  मुलगा  राकेश  अभ्यासात  खूप  हुशार  होता.  त्याचे  आजोबा  नेहमी  अभिमानाने  सगळ्यांना  सांगायचे,  ‘माझा  नातू  एक  हीरा  आहे  हीरा,  बघा  कसा  एक  दिवस  गोखले  खानदानाचं  नाव  सातासमुद्रापार  घेवून  जातो  ते.’


 

पुण्यात  राहणारं  गोखले  कुटुंब  सुखवस्तु  होतं.  जुने  वाडे  लुप्त  होण्याच्या  या  काळात  त्यांचा  भलामोठा  एखाद्या  हवेलीसारखा  वाडा  नुकताच  नवीन  बांधल्यासारखा  सुस्थितीत  होता.  त्यांच्या  प्रत्येक  पिढीत  एकच  मुलगा.  एकाच  अपत्याला  व्यवस्थित  शिकवून  रेघरुपाला  लावायचे  ही  जणु  गोखल्यांची  प्रथाच  होती.  वसंतरावही  या  प्रथेला  अपवाद  नव्हते.  त्यांनी  राकेशला  सर्वोत्तम  शिक्षण  दिले.  पुण्यात  M.B.B.S.  केल्यावर  त्याने  MS  साठी  अमेरिकेला  जायची  परवानगी  मागितली.  आपल्या  वडिलांचे  बोलणे  आठवून  वसंतरावांनी  त्याला  सातासमुद्रापार  जायची  परवानगी  दिली.  आपला  नवरा  मुलाच्या  भल्यासाठीच  झटतो  याची  खात्री  असलेल्या  निर्मलाबाईंनी  हसतमुखाने  मुलाची  परदेशी  पाठवणी  केली.


 

चार  वर्षाने  राकेश  मायदेशी  परत  आला.  वसंतराव  आणि  निर्मलाबाईंनी  आनंदाने  आणि  अभिमानाने  त्याचे  स्वागत  केले.  आता  आईला  वेध  लागले  मुलाच्या  लग्नाचे.  एक  दिवस  दुपारचे  जेवण  आटपुन  निवांत  बसलेले  असताना  वसंतरावांनी  विषय  काढला.

  “बाळा  तुझ्या  मनासारखे  शिक्षण  पुर्ण  झाले  आता  आपण  तुझे  लग्न,  हाॅस्पिटल  वगैरेच्या  तयारीला  लागू  या.”   सावरुन  बसत  राकेश  बोलला,  “बरे  झाले  बाबा  तुम्ही  हा  विषय  काढलात,  मी  तुम्हाला  सांगणारच  होतो,  तिकडे  असताना  मला  सोनिया  भेटली,  ती  पण  MS  करायला  माझ्याच  काॅलेजमध्ये  होती.  आम्ही  लग्न  करायचा  निर्णय  घेतलाय  आणि  तिकडेच  सेटल  होवू.”

 


  “अरे  पण  कोण  ती  मुलगी,  तु  आम्हाला  न  विचारता  असं  डायरेक्ट  कसा  लग्नाचा  आणि  तिकडेच  सेटल  होण्याचा  निर्णय  घेवू  शकतो?”



“कम  आॅन  बाबा   मला  माहित  आहे,  तुम्ही  मला  नाही  कधीच  म्हणणार  नाही. कारण  आजवर  नेहमीच  तुम्ही  मला  सपोर्ट  करत  आलात,  माझ्या  सुखातच  तुम्ही  आपलं  सुख  शोधता  मग  यावेळेस  ही  तसेच  होणार  ना.”    वसंतराव  एकदम  शांतच  झाले.  न  राहवुन  निर्मलाबाई  बोलल्या,  “हे  बघ  राकेश  आम्ही  तुला  सपोर्ट  करतो,  तुझ्या  आनंदात  आनंद  मानतो  हे  सगळं  कितीही  खरे  असले  तरी  तुझे  पालक  नाही  तर  जन्मदाते  म्हणून  आमच्याही  काही  अपेक्षा  असतील  ना  तुझ्याकडून.”



“आई  प्लीज,  आता  तू  सुरू  होवू  नकोस.  मी  लहानपणापासून  परदेशात  सेटल  होण्याचे  स्वप्न  पाहत  मोठा  झालोय.  आजोबांचे  बोल  खरे  करायचे  आहेत  मला.  सोनियाच्या  घरचे  कित्येक  वर्षापासून  तिकडेच  स्थाईक  आहेत,  ते  मला  सगळी  मदत  करणार  आहेत.”



झाले,  यावेळेसही  पुत्राच्या  कर्तव्यावर  पुत्रप्रेमाने  विजय  मिळवला.  दोन  महिन्यात  राकेश  सोनियाचे  लग्न  झाले.  फक्त  लग्नापुरती  भारतात  आलेली  सून  लग्न  झाल्या  दुसऱ्यादिवशी  परत  निघून  गेली.

  


परत  निर्मलाबाई  आणि  वसंतरावच  त्या  भल्याथोरल्या   वाड्यात  राहिले.  तीन  वर्षानी  या  दोघांना  बढती  मिळून  ते  आजी  आजोबा  झाले.  ती  गोड  नाजुक  दुधावरची  साय  सई  पाहून  मन  भरून  येई.  विडीयो  काॅलवर  तिच्या  बाललीला  पाहून  वसंतराव  आणि  निर्मलाबाई  अपेक्षाभंगाचे  दुःख  विसरून  जात.


 

सई  जेव्हा  दोन  वर्षाची  झाली  तेव्हा  राकेश  सोनिया  तिला  घेवून  भारतात  आले.  चिमुकल्या  परीसाठी  निर्मलाबाईंनी  घुंगराचे   पैंजण  घेतले.  ते  घालून  छुमछुम  करत  घरभर  फिरत  असे   ती.  राकेशने  तिला  आजी  आजोबा  म्हणायला  शिकवले  होते.  आजी  आजी  करत  सई  निर्मलाबाईंच्या  मागे  मागे  फिरे  तर  आजोऽ  अशी  प्रेमळ  साद  घालत  वसंतरावांच्या  मांडीवर  जावून  बसे.



  राकेश  आल्यावर  आठवडयाभराने  एक  भली  मोठी  कार  वाडयासमोर  येवून  उभी  राहिली.  आतून  उतरलेल्या  माणसाची  हा  माझा  मित्र  अशी  ओळख  करुन  देत राकेश  त्याला आपल्या  रूममध्ये  घेवून  गेला.  असेल  काही  काम  असा  विचार  करुन  वसंतरावांनी  तिकडे  दुर्लक्ष  केले.  थोड्यावेळात  सोनिया पण  आत  गेली.  तासा दोन तासाने  तो  मित्र  बाहेर  आला  आणि  ‘तुम्ही  मला  सांग  लवकर  काय  ते  म्हणजे  आपल्याला  डील  फायनल  करता  येईल’  असे  बोलत  कारमध्ये  बसून  निघून  गेला.


 

दोन  दिवस  घरातले  वातावरण  काही  वेगळंच  होते.  सोनिया  सासू  सासऱ्यांची  जरा  जास्तच   सेवा  करत  होती.  राकेश  आईवडिलांची  मर्जी  राखण्याचा  प्रयत्न  करत  होता.  निर्मलाबाई   वसंतरावांच्या  कानाला  लागल्या,  “अहो,   मला  यांचा  नूर  काही  वेगळाच  वाटतोय.  काय  यांचा  बेत  आहे  कुणास  ठावुक.”

वसंतरावांनाही  तसा  अंदाज  आला  होता  पण  तरी  बायकोची  समजूत  काढत  ते  बोलले,  “तसे  काही  नसेल,  तुम्ही  उगाच  जास्त  विचार  करू  नका.”  रात्री  जेवताना  सहज  विचारल्या सारखं  राकेशने  विचारले,  “बाबा  आपल्या  वाडयाची  अंदाजे  किंमत  काय  असेल  हो?”  वसंतरावांचा  तोंडाकडे  जाणारा  घास  मध्येच  थबकला.  वरकरणी  हसत  ते  म्हणाले,  “काय  रे  बाबा  वाडा  विकून  आम्हाला  रस्त्यावर  आणण्याचा  विचार  आहे  का  तुझा!”  


  “अहो  नाही  बाबा  असे  काही.”  राकेश  वरमून  म्हणाला.


 

सकाळी  फिरून  येवून  चहा  घेत  निर्मलाबाई  वसंतराव  चहा  घेत  झोपाळ्यावर  बसले  होते.  अचानक  आतून  सोनियाचा  जोरात  ओरडून  बोलण्याचा  आवाज  आला,  “राॅकी,   तू  बोलणार  आहेस  त्यांच्याशी  की  मीच  बोलू?  ज्या  कामासाठी  आपण  इकडे  आलो  ते  कामही  नीट  करत  नाहीस  तू!”


  बोलताबोलता  दोघे  बाहेर  आले,  या  दोघांना  पाहून   थोडे  चपापले.  वसंतरावांनी  हा  काय  प्रकार   आहे  असे  विचारले.  राकेश  बोलू  लागला,  “बाबा  आता  तुमची  दोघांची  सत्तरी  जवळ  आली  आहे,  मी  तिकडे  दूर  राहायला,  या  वयात  या  एवढया  मोठया  घरात  असे  तुम्ही  दोघेच  राहणे  हे  मनाला  पटत  नाही.”

  

“राकेश,  मुद्द्यावर  ये,  काय  म्हणायचं आहे तुला नेमके.”


“हम्म.  तर  मी  असा  विचार  करत  होतो  की  हा  वाडा  आपण  विकूया,  तुम्हा  दोघांसाठी  एक  वेलफर्निश्ड  वन  बीएचके  फ्लॅट  घेवू  जेणेकरून  साफसफाईला  पण  बरे  पडेल  आणि  इथे  असे  एकटे  राहण्यापेक्षा  आजूबाजूला  चार  लोक  असतील.”


 

 “बरं  हा  वाडा  विकून  किती  पैसे  मिळतील  आणि  तू  काय  करणार  त्याचे?”



“बाबा,  कमीतकमी  वीस  करोड  तरी मिळतील.  मी  या  पैशात  अजुन  थोडी  भर  टाकून  अमेरिकेत  एक  सीफेसिंग  बंगला  विकत  घेणार  आहे.”



आपल्या  मुलाचे  हे  इतके  स्वार्थी  विचार  ऐकून  निर्मलाबाई  थक्क  झाल्या.  रागाने  थरथरत  वसंतराव  झोपाळ्यावरून  उठले.  “राकेश  आत्ताच्या  आत्ता  तुझी  बॅग  भरायला  घे  आणि  दहा  मिनीटात  हे  घर  सोडुन  चालतं  व्हायचं,  नाहीतर  अकराव्या  मिनीटाला  धक्के  मारून  तुम्हाला  घराबाहेर  काढेन  मी.”


 राकेश  हबकला.  “आई  तू  तर  सांग  बाबांना.”



“मी  काय  सांगू,  त्यांनी  दहा  मिनीट  तर  दिले  आहेत  मी  तेवढेही  नसते  दिले.  अरे  कसला  मुलगा  तू,  आईबापाला  वडिलोपार्जीत  घरातून  बेघर  करून  स्वतःचा  बंगला  बनवायला  निघालास. अरे  जनाची  नाही  तर  निदान  मनाची  तरी  लाज  ठेवायची.  इतकं  कसं  कुणी  स्वार्थी  असू  शकत?   शिकायला  परदेशी  जायच  बोललास,  पाठवल  आम्ही.  तुझ्या  आवडीची  मुलगी  बायको  म्हणून  आणलीस,  तेही  मान्य  केलं.  आम्हाला  काय  वाटत,  आमची  काय  गरज  आहे  याचा  विचार  न  करता  परदेशात  स्थायिक  झालास,  तेही  दुःख  गिळून  गप्प  बसलो  आम्ही.

  पण  आता  अजिबात  नाही,  पाणी  आता  डोक्यावरुन  चाललं  आहे  ते  आम्ही  सहन  करणार  नाही.  निघा  आता  तुम्ही  आणि  आता  परत  यायचा  अजिबात  विचार  करू  नका.”  सईला  उचलून  घेवून  तिचा  पापा  घेत  त्या  बोलल्या,  “बाळा,  या  गोखल्यांच्या  वाड्यात  कित्येक  पिढ्यांनंतर  घरच्या  मुलीचे  पैंजण  रुणझुणले,  कदाचित  ही  नव्याची  नांदी  असावी.  दुधावरची  साय  म्हणून  तू  आम्हाला  प्रिय  आहेस  पण  आज  आमचे  दुधच  नासकं  निघालं,  खूप  खूप  आशीर्वाद  तुला.”  इतकं  बोलून  त्या  आतल्या  खोलीत  निघून  गेल्या.  वसंतरावही  पेपर  वाचत  शांतपणे  आरामखुर्चीत  बसून  राहिले.

  


निर्मलाबाईंनी  स्वयंपाक  आटोपला.  रोजच्याप्रमाणे  दोघांनी  एकत्र  जेवून  घेतले.  वामकुक्षीसाठी  लवंडल्या  असताना  त्यांना  सई  हाक  मारत  असल्याचा  भास  झाला  होता.  ‘संध्याकाळ  झाली  आहे,  थोडा  चहा  टाकता  का  हो  निर्मला?’ 


 ‘हो  हो  आत्ता  बनवते  थांबा.’  दोघे  चहा  घेत  असताना  दार  लोटुन  कोणीतरी  आत  आले. ती  एक  विशीची  मुलगी  होती.  अंगावर  अतिशय  साधे  कपडे  होते.  थोडं  घाबरतच  ती  म्हणाली,  “काका  माफ  करा  अशी  डायरेक्ट  घरात  घुसली  मी.  मी  इथे  पुण्यात  नवीन  आहे.  मी  राहायला  खोली  शोधत  होते,  तुमचा  वाडा  दिसला  चौकशी  करावी  म्हणून  आले.  तुमच्याकडे  आहे  का  एखादी  खोली?”


 

वसंतराव  तिची  ती  कोण,  कुठली,  इथे  काय  करते  वगैरे  चौकशी  करू  लागले.  तिचे  नाव  माधवी  होते.  ती  सांगलीची  होती. नुकतेच  अठरावं  वर्ष  सरलं  म्हणून  तिचे  वडील  तिच्या  मनाविरुद्ध  तिचे  लग्न  लावून  देत  होते.  म्हणून  ही  मांडवातून  पळून  आली  होती.  पुण्यात  एका  कपड्याच्या  शोरूममध्ये  गावची  दुसरी  मुलगी  काम  करत  होती.  ओळखीनं  हिला  पण  काम  मिळाले.  आता  स्वतःच्या  राहण्याची  सोय  पाहत  होती.


 

तिची  कहाणी  ऐकून  वसंतरावांना  एक  कल्पना  सुचली.  त्यांनी  तिला  सांगितले  वाड्यात  खूप  खोल्या  रिकाम्या  असून  ती  इकडे  राहायला  येवू  शकते.  भाडे  अगदीच  मामुली  घेतील  ते  पण  रूम  स्वच्छ  टापटीप  ठेवावी  लागेल  आणि  काही  नियम  पाळावे  लागतील.


 

माधवी  आनंदाने  त्याच  दिवशी  राहायला  आली.  निर्मलाबाईंना  समोर  बसवून  वसंतराव  सांगू  लागले.  “निर्मला  सई  गेली  म्हणून  तू  नाराज  होतीस  ना,  बघ  मी  आता  तुझ्यासाठी  अशा  किती  सई  आणतो  ते.  मी  एक  विचार  केलाय,  आपण  वाड्यात  माधवीसारख्या  गरजू,  होतकरु  किंवा  नोकरी  करत  एकट्या  राहणाऱ्या  विधवा,  परित्यक्ता  मुलींसाठी  नाममात्र  शुल्क  घेवून  वसतीगृह  सुरू  करू.  त्यांचीही  सोय  होईल,  आपल्याला  सोबत  होईल,  वाड्याचा  सदुपयोग  होईल.”  निर्मलाबाईंनी  आनंदाने  होकार  दिला.



एका  महिन्यात  वसंतरावांनी  आवश्यक  ती  कायदेशीर  प्रक्रिया  पार  पाडुन  ट्रस्ट  निर्माण  केला.  आपली  सगळी  संपत्ती  ट्रस्टच्या  नावे  करून   ‘सावली  वर्किंग  विमेन्स  होस्टेल’  चालू  केले.  येणाऱ्या  प्रत्येक  मुलीची  काटेकोरपणे  मुलाखत  घेवून  फक्त  अतिशय  गरीब,  विधवा,  वेगवेगळ्या  अत्याचारांना  बळी   पडलेल्या  पीडिता  अशा  स्त्रियांनाच  प्रवेश  दिला  जाई.

  कठीण  परिस्थितीशी  दोन  हात  करून  नोकरी  करून  स्वावलंबी  बनू  इच्छिणाऱ्या  या  बायकांना  निर्मलाबाई  आणि  वसंतरावांच्या  रूपात  मायेची  सावली  मिळाली.  या  दोघांना  आपल्या  मुलाच्या  वागण्याने  झालेले  दुःख  पार  नाहिसे  झाले.

 


“अहो  यावर्षी  संक्रांतीचे  वाण  काय  लुटू?”  निर्मलाबाई वसंतरावांना विचारत होत्या. 


“अगं चांदीचे  पैंजण... आपल्या  या  सगळ्या  मुलींसाठी!  चल  लवकर  सराफाकडे  जावूया.” खुंटीवरून सदरा काढत वसंतराव म्हणाले.


आणि  वाडा  परत  पैंजणांची  रूणझुण  ऐकून  तृप्त  झाला.  


समाप्त


वरील कथा सविता किरनाळे यांची असून कथेत व्यक्त केलेले विचार सर्वस्वी त्यांचे आहेत. ही कथा आम्ही लेखिकेच्या परवानगीने शब्द चाफा ब्लॉगवर प्रकाशित करत असून आमचा कथेवर कोणताही हक्क नाही. कथेचे सर्व हक्क लेखिकेकडे सुरक्षित आहेत. 


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